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Sri Krishna Janmastmi 2020 Special: श्री कृष्णा जन्म-गुप्त बदलाव

गुप्त बदलाव: Jab Vasudev ne Sri Krishna ko Yashoda ki Putri ke Sath Badla

Sri Krishna Janmastmi 2020 Special Part 2: नमस्कार दोस्तों, आज इस लेख में हम पढ़ेंगे की कैसे वसुदेव ने श्री कृष्ण के जन्म के बाद उन्हें यशोदा की पुत्री के साथ बदल दिया| श्री कृष्ण का जन्मदिवस अर्थात कृष्ण जन्माष्टमी प्रत्येक वर्ष भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाई जाती है| इस दिन भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था| इस वर्ष श्री कृष्णा जन्माष्टमी 11 अगस्त को मनाई जाएगी| अगर आपने इस सीरीज कृष्ण जन्माष्टमी स्पेशल 2020 का भाग 1 नहीं पढ़ा है तो पहले वह पढ़ें| दोस्तों चलिए पढ़ते है भगवान श्री कृष्णा जन्म के गुप्त बदलाव की कहानी..

जब वसुदेव और देवकी ने आपने पुत्र में भगवान विष्णु की झलक देखी 

श्री कृष्ण के जन्म के पश्चात, देवी महामाया की आज्ञानुसार वसुदेव अपनी आठवीं संतान को यशोदा की पुत्री से साथ बदलने के चलने लगे| वसुदेव कक्ष के बाहर निकलने ही वाले थे कि देवकी ने पुकार लिया, "स्वामी रुकिए, मुझे मेरे पुत्र की एक झलक और देख लेने दीजिए !"
वह वसुदेव के पास आई| देवी महामाया का मोहक प्रकाश जो अभी कुछ क्षण पहले चमक रहा था, वह अब अदृश्य हो चुका था| परन्तु जैसे ही दोनों ने अपने पुत्र को ध्यान से देखा, अचानक ही वह बालक एक तारे की तरह जगमगाने लगा| उसे देखते ही वे दोनों सुख आनंद से भर गए- उन्होंने उस अद्भुत बालक में स्वयं भगवान विष्णु की छवि देखी| उसके चार छोटे-छोटे हाथ थे, जिनमें वह भगवान के प्रतीकों- शंख, चक्र, गदा व पदम को धारण किए हुए थे| 
वह सचमुच में एक झलक ही थी, जो पालक झपकते ही अदृश्य हो गई| बालक पुनः अपने उसी सुंदर मानवीय रूप में आ गए थे| 
'अब हम जान गए कि हमारा पुत्र कौन है| अपने भक्तों की प्रार्थनाओं को सुनकर स्वयं भगवान विष्णु अवतरित हुए हैं!' वसुदेव ने अपनी बात को सही बताते हुए कहा| 
"मेरा कितना मन था कि भगवान के उस दिव्य स्वरुप का दर्शन कुछ देर तक और कर पाती !" देवकी ने कहा|

जब वसुदेव ने बताया भगवान के धरती पर मानव रूप में आने का कारण

वसुदेव ने कहा- "भगवान धरती पर मानव रूप में इसलिए आते हैं ताकि वे साधारण मनुष्यों के साथ रह सकें और उन्हें अपने दिव्य स्वरुप का दर्शन कराते हैं जिससे लोग उनके कार्य में सहभागी होने का सुख प्राप्त कर सकें| वे स्वयं को भूलकर धरती पर सबके साथ रहने का आनंद उठाते हैं| साथ ही, अपने उद्देश्य को ध्यान में रखते हैं जिसके लिए वे धरती पर आते हैं|" 
"मुझे यह सब कुछ समझ नहीं आता| बस मैं इतना जानती हूँ कि मेरा पुत्र अन्य बालकों से अलग नहीं दिखाई देना चाहिए| यदि ऐसा हुआ तो कंस उसे ढूंढ निकलेगा|" देवकी ने कहा| वसुदेव बोले, "तुम सत्य कह रही हो, परन्तु अभी समय नष्ट नहीं करना है| मुझे जल्दी ही अपने मित्र के घर पहुँचना चाहिए|" 
देवकी ने अपने पुत्र को स्नेह से चूमा और बड़े ही भारी मन से उसके नन्हे हाथों को छोड़ दिया| अपने पुत्र को छाती से लगाकर वसुदेव कारागार से बाहर निकल गए| 

जब सभी द्वार अपने-आप ही खुल गए

एक जोर कि आँधी महल के भीतर चलने लगी जिसने सरे दिए व मशालों को बुझा दिया| दैत्य पहरेदार इधर-उधर बेसुध पड़े थे| इतनी भीषण वर्षा जैसे कोई कोड़े मर रहा हो और हवा का इतना तेज प्रवाह कानों में सनसनाहट पैदा कर रहा था, पहरेदार भय के मारे जोर-जोर से चिल्लाने लगे| परन्तु सब कुछ करने के बाद भी वसुदेव उनके बगल से निकल गए और वे उन पर ध्यान भी नहीं दे पाए, एक-एक करके महल के सभी द्वार अपने-आप ही वसुदेव के लिए खुलते जा रहे थे|
महल के बाहर घोर अंधकार था| आसमान में विशालकाय बदल एक-दूसरे से ऐसे टकरा रहे थे मानो बहुत बड़ी-बड़ी धारदार कैंचियाँ अंधकार को टुकड़ों में काट रही हों और उनके दोनों धारों के मिलने से ही तेज बिजली चमक रही हो| बादलों कि भीषण गड़गड़ाहट से तो जैसे पूरी धरती ही काँप रही हो| 

वसुदेव ने किया यमुना नदी में प्रवेश

वसुदेव को हर ओर गुप्प अंधकार के अलावा और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, परन्तु उस अंधकार में भी बालक का मुख नील हरे आभामंडल से जगमगा रहा था| उन्हें पता ही नहीं चला कि वे यमुना नदी में प्रवेश कर उसके बहाव को बड़ी मेहनत से काटते हुए पार कर रहे थे| 
नदी अत्यधिक उफान पर थी और बहाव बड़ा ही तीव्र था| वसुदेव धारा के तीव्र प्रवाह में भी बिना डगमगाए चलते जा रहे थे| परन्तु जब पानी उनके कंधे तक पहुँच गया और ऊँची-ऊँची लहरों के थपेड़े बालक तक पहुँचने लगे, तब उन्हें रुकना पड़ा| 

सर्पों के सम्राट "वासुकी" ने दी श्री कृष्ण को सुरक्षा

एकाएक, वसुदेव को आभास हुआ कि वर्षा तो मूसलाधार हो रही थी, परन्तु वे अचंभित थे कि उन पर या शिशु पर बौछार भी नहीं पड़ रही थी| अगले ही क्षण, जैसे ही उन्होंने ऊपर देखा, आनंद और आभार से उनका हृदय गदगद हो गया| उन्होंने देखा कि सर्पों के सम्राट "वासुकी" उस दिव्य बालक की वर्षा से सुरक्षा के लिए, अपने अनगिनत फनों को छाते की तरह फैलाए पीछे-पीछे चल रहे थे| 
"यदि विधाता की इच्छा के विरुद्ध वर्षा तक मेरे पुत्र को नहीं छू पा रही है तो यह नदी क्या कर पाएगी?" ऐसा सोचते हुए वसुदेव उफनाती लहरों को चीरते हुए आगे बढ़ गए| 
निश्चय ही, पावन नदी भी किसी तरह की हानि बालक को नहीं पहुँचाना चाहती थी| वह तो बस जैसे उनके चरणों का स्पर्श और उन्हें सहलाना चाहती थी| 
वसुदेव बिना किसी कठिनाई के नदी को ऐसे पार कर गए, जैसे किसी घास के मैदान पर चल रहे हों| 'वासुकी' वापस लौट गए थे| वर्षा भी धीमी हो चुकी थी| गोपा गांव और गांव के मुखिया नंद का घर अब दूर नहीं था| नंद वसुदेव के मित्र होने के साथ-साथ सौतेले भाई भी थे| ग्रामवासी अपने मुखिया नंद को अपना राजा मानते थे और यशोदा को अपनी रानी जैसा सम्मान देते थे| वसुदेव गांव पहुँचे गए, परन्तु अब उन्हें थोड़ी चिंता यह भी थी कि यदि नंद के द्वारपालों ने उन्हें रोककर पूछताछ की- वे कौन हैं, इतनी रात में असमय एक बच्चे को गोद में लिए क्यों घूम रहे हैं, तो वे क्या उत्तर देंगे? 

वसुदेव पहुंचे नंद के घर

परन्तु यहाँ एक और आश्चर्य उनकी प्रतीक्षा कर रहा था| उन्हें तुरंत आभास हुआ कि माता महामाया की महिमा से न केवल मथुरावासी ही अचेत पड़े थे, बल्कि गोपावासी भी उसी निद्रा में डूबे थे| 
सब और सन्नाटा था| चन्द्रमा का मंद प्रकाश बादलों के बीच में से धरती पर पड़ रहा था और धीमे प्रकाश में नंद का भवन एक भूतिया भवन के जैसा प्रतीत हो रहा था| 
वसुदेव ने भवन में प्रवेश किया और बिना रुके यशोदा के शयन कक्ष में चले गए| 
रानी यशोदा के पलंग के सिरहाने पर रत्न जड़ित दो खंभे सजे हुए थे और उनमे लगे दर्जनों दिए उस पलंग की शोभा और बढ़ा रहे थे| पलंग के चारों ओर धरती पर दासियाँ सो रही थीं| देवी यशोदा भी चैन से सोई हुई थीं| 
यदि कोई जाग रहा था तो यशोदा की नवजात कन्या| वो अपने नन्हे-नन्हे हाथ पैर को हिलाते हुए खेल रही थी| उसके मनमोहक नेत्र ऐसे चमक रहे थे जैसे कि वे अपने इस विशेष आगंतुक कि प्रतीक्षा में थी| 
जोर की हवा चल रही थी और दीयों की ज्योति हवा की लय में काँप रही थी| वसुदेव  अपनी सुधबुध खोए सम्मोहित से खड़े थे| कभी वे अपनी गोद में खेल रहे बालक को देखते तो कभी यशोदा की शय्या पर खेलती बालिका को| अचानक ही बादलों की गड़गड़ाहट से उनका ध्यान टूट गया और उन्हें याद आया कि वे किसी कार्य हेतु आए थे| 

जब वसुदेव ने अपने पुत्र को यशोदा की पुत्री के साथ बदला

बहुत ही धीरे से, उन्होंने अपने पुत्र को देवी यशोदा के बगल में लिटा दिया और बड़ी सावधानी से उनकी पुत्री को अपनी गोद में उठा लिया| यशोदा को नींद में डूबा हुआ देख उन्होंने मन-ही-मन कहा, "बहन मैं अपने पुत्र को तुम्हारे स्नेह और सुरक्षा में छोड़े जा रहा हूँ, परन्तु तुम्हारी पुत्री के भाग्य में क्या है, मैं नहीं कह सकता| मुझे क्षमा करना, मैं बस माँ भगवती के आदेश का पालन कर रहा हूँ|" 
अपने पुत्र की एक अंतिम झलक देखकर और नंद के शिशु को अपनी छाती से लगाकर वसुदेव तुरंत घर से बाहर निकल गए| 

जब कंस पहुंचा वसुदेव और देवकी के कक्ष में 

सुबह हो चुकी थी और साथ ही देवकी के कक्ष से बच्चे के रोने के स्वर भी सुनाई देने लगा था| महल के सारे प्रहरी और निवासी अब जाग चुके थे, परन्तु वे रात्रि के ऐतिहासिक घटनाक्रम से अनभिज्ञ थे| 
कंस के कक्ष में पहुँचने के लिए पहरेदारों की होड़ लग गई| 
"महाराज ! राजकुमारी देवकी ने अपनी आठवीं संतान को जन्म दे दिया है!" सभी ने बड़े उत्साह से कंस को सूचित किया| 
कंस उछल पड़ा| वह एक शब्द भी नहीं बोला, परंतु उसके भभकते नेत्रों से मनो भयानक ज्वाला निकल रही थी| दाँत पीसते हुए वह देवकी के कक्ष की ओर भागा| 
"भइया !" जोर-जोर से रोते हुए देवकी कंस के पैरों पर गिर पड़ी| "यह एक लड़की है| यह तुम्हें क्या हानि पहुँचा सकती है? तुम्हारे क्रोध ने सब कुछ नष्ट कर दिया- मेरी सभी अबोध संतानों को खा गया तुम्हारा क्रोध| क्या तुम एकमात्र इसको नहीं छोड़ सकते- बस यह एक बच्ची ही तो है, जिसके सहारे मैं जी पाऊँगी, जो मेरे जीवन का आधार होगी?"
वसुदेव, डबडबाती हुई आँखों से बोला, "प्रिय कंस! मैं वचन देता हूँ, हम इस बच्ची को लेकर यहाँ से कहीं दूर जंगलों में चले जाएँगे| यदि फिर भी तुम्हारा मन न भरे तो तुम इसका विवाह अपनी पसंद के व्यक्ति से करा देना ताकि यह सदा के लिए तुम्हारे अनुसार ही रहे| एक अबोध कन्या की हत्या का पाप क्यों करते हो!"  
कंस ने उपहास किया| "वसुदेव ! तुम्हारे सात शिशुओं की हत्या करके क्या मैंने कोई पाप नहीं किया? यदि एक और हत्या कर दूँगा तो क्या अंतर पड़ेगा? यदि मुझे तुम्हारी आठवीं संतान को छोड़ देना होता, जो कि उस अशुभ भविष्यवाणी के अनुसार जो मेरा सबसे बड़ा शत्रु है, क्या मैं मुर्ख था कि तुम्हारी सभी संतानों कि हत्या कर दी?" 
कंस का निर्दयी अट्टहास सुनकर वसुदेव यह समझ चुके थे कि अब किसी भी प्रकार कि याचना व्यर्थ होगी| वे चुप हो गए, परंतु देवकी अभी भी उस दुष्ट के पैरों से लिपटी हुई थी| "छोड़ो मुझे !" कंस ने जोर से चीखते हुए देवकी को पैरों से झटक दिया|  
वसुदेव मूर्ति के समान खड़े देखते रहे| और देवकी मूर्च्छित होकर गिर पड़ी| कंस तेजी से बाहर निकला| पालक झकपते ही वह आँगन में उसी स्थान पर पहुँच गया, जहाँ वह भयानक शिला राखी हुई थी| चूँकि भविष्यवाणी के मुताबिक अब यह देवकी कि आठवीं संतान थी, अतः इसको मारने में अधिक उत्सुक था और कोई भी भूल नहीं करना चाहता था| उसने बच्चे को ऊपर उठाकर घुमाना शुरू किया, ताकि अधिकतम जोर से व सही बल लगाकर नीचे गिराकर मार सके| 

आकाशवाणी ने की कंस के काल की घोषणा

परंतु, देखा यह क्या हुआ ! अभी तो उसने आधा चक्कर ही घुमाया था कि बच्ची उसके हाथ से छूट गई और छूटते ही सुबह के स्वच्छ चमकीले नील आसमान में चली गई| जैसे ही कंस ने ऊपर देखा वह भौचक्का रह गया| उसने देखा कि प्रकाश की एक चमकदार और सुनहरी रेखा नील आसमान में विलीन हो रही है| यह देखते ही वह चकित रह गया| 
परंतु उसके पहले ही आसमान से एक स्वर गूँजा, जिसने न केवल पूरे महल को हिला दिया, बल्कि कंस को भी भीतर तक कँपा दिया| "अरे दुष्ट पापी, जान ले ! तेरा काल जन्म ले चुका है| वह सुरक्षित और सकुशल तेरी जानकारी के बाहर वहाँ पल रहा है जहाँ भाग्य ने निर्धारित किया है !" आकाशवाणी ने घोषणा की| 
कंस बहुत देर तक सन्न खड़ा रहा| अचानक से घटित यह घटना उसकी समझ से परे थी| वह बच्ची जो अब अदृश्य हो चुकी थी, स्वयं देवी महामाया थी- उन्होंने कंस को ऐसे असहाय करके छोड़ा था, जैसे अचानक से किसी व्यक्ति की दोनों भुजाएँ काट दी गई हों ! 
बस वह टकटकी लगाए आसमान की ओर देखता रहा|


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